काजू का इस्तेमाल और उपभोग कई तरह से किया जाता है। काजू के छिलके का इस्तेमाल पेंट्स से लेकर लुब्रिकेंट्स तक में होता है। एशियाई देशों में अधिकांश तटीय इलाके काजू उत्पादन के बड़े क्षेत्र हैं। काजू की व्यावसायिक खेती दिनों-दिन लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि काजू सभी अहम कार्यक्रमों या उत्सवों में अल्पाहार या नाश्ता का जरूरी हिस्सा बन गया है। विदेशी बाजारों में भी काजू की बहुत अच्छी मांग है। जब हम यह कहते हैं कि यह बहुत तेजी से बढ़ने वाला पेड़ है तो इसका मतलब ये है कि इसमे पौधारोपन के तीन साल बाद फूल आने लगते हैं और उसके दो महीने के भीतर पककर तैयार हो जाता है।


भूमि एवं जलवायु

काजू एक उष्ण कटिबन्धीय फसल है जो गर्म एवं उष्ण जलवायु में अच्छी पैदावार देता है। जिन क्षेत्रों में पाला पड़ने की सम्भावना होती है या लम्बे समय तक सर्दी पड़ती है वहाँ पर इसकी खेती प्रभावित होती है। 700 मी. ऊँचाई वाले क्षेत्र जहाँ पर तापमान 200 सें.ग्रे. से ऊपर रहता है काजू की अच्छी उपज होती है। 600-4500 मि.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र के लिए उपयुक्त माने गये है। काजू को अनेक प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है परन्तु समुद्र तटीय प्रभाव वाले लाल एवं लेटराइट मिट्टी वाले भू-भाग इसकी खेती के लिए ज्यादा उपयुक्त होते है। झारखंड राज्य के पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला खरसावाँ जिले काजू की खेती के लिए अत्यंत उपयुक्त पाये गये हैं। इन जिलों की मिट्टी एवं जलवायु काजू की खेती के लिए उपयुक्त हैं।


उन्नत किस्में

विभिन्न राज्यों के लिए काजू की उन्नत किस्मों की संस्तुति राष्ट्रीय काजू अनुसंधान केंद्र (पुत्तूर) द्वारा की गई है। इसके अनुसार वैसे तो झारखंड राज्य के लिए किस्मों की संस्तुति नहीं है परन्तु जो किस्में उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल एवं कर्नाटक के लिए उपयुक्त है उनकी खेती झारखंड राज्य में भी की जा सकती है। क्षेत्र के लिए काजू की प्रमुख किस्में वेगुरला-4, उल्लाल-2, उल्लाल-4, बी.पी.पी.-1, बी.पी.पी.-2, टी.-40 आदि है।


उपज

विभिन्न क्षेत्रों में इसकी उपज में विभिन्नता पाई जाती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में कम उपज होती है। अच्छी देखभाल करके इसकी उपज में काफी वृद्धि की जा सकती है। प्रति वृक्ष 12 किग्रा० तक उपज मिल जाती है। अब इसकी उन्नत किस्में उपलब्ध हैं, जिनसे 11-20 किग्रा० प्रति वृक्ष प्रति वर्ष तक उपज सुगमता से ली जा सकती है।


पौधरोपण

काजू के बीज निर्माण के लिए स्वयं परागण या मिश्रित या संकर परागण बहुत महत्वपूर्ण तत्व है। यही वजह है कि इस तरह के काजू बीज से पौधों में काफी विविधता देखने को मिलती है और एक पेड़ जैसे दूसरे एकसमान पेड़ नहीं हो सकते है। यही वजह है कि काजू के पौधारोपन में लकड़ी में कोमल कलम, एयर लेयरिंग और एपिकोटिल कलम या ग्राफ्टिंग काजू की खेती में वानस्पतिक प्रजनन के तरीके हैं।


खेत की तैयारी

काजू की खेती के लिए सर्वप्रथम खेत की झाड़ियों तथा घासों को साफ़ करके खेत की 2-3 बार जुताई कर दें। झाड़ियों की जड़ों को निकाल कर खेत को बराबर कर दें, जिससे नये पौधों को प्रारम्भिक अवस्था में पनपने में कोई कठिनाई न हो।

काजू के पौधों को 7-8 मी. की दूरी पर वर्गाकार विधि में लगाते हैं। अत: खेत की तैयारी के बाद अप्रैल-मई के महीने में निश्चित दूरी पर 60x 60 x 60 सें.मी. आकार के गड्ढे तैयार कर लेते हैं। अगर जमीन में कड़ी परत है तो गड्ढे के आकार को आवश्यकताअनुसार बढ़ाया जा सकता है। गड्ढों की 15-20 दिन तक खुला छोड़ने के बाद 5 कि.ग्रा. गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 2 कि.ग्रा. रॉक फ़ॉस्फेट या डीएपी के मिश्रण को गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में मिलाकर भर देते हैं। गड्ढों के आसपास ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि वहाँ पानी न रुके। अधिक सघनता से बाग़ लगाने के पौधों की दूरी 5x 5 या 4 x 4 मी. रखते हैं। शेष प्रक्रियाएं सामान्य ही रहती है।


सिंचाई के तरीके

आमतौर पर काजू की फसल वर्षा आधारित मजबूत फसल है। हालांकि, किसी भी फसल में वक्त पर सिंचाई से अच्छा उत्पादन होता है। पौधारोपन के शुरुआती एक दो साल में मिट्टी में अच्छी तरह से जड़ जमाने तक सिंचाई की जरूरत पड़ती है। फल के गिरने को रोकने के लिए सिंचाई का अगला चरण पल्लवन और फल लगने के दौरान चलाया जाता है।


सिंचाई के तरीके

प्रत्येक वर्ष पौधों को 10-15 कि.ग्रा. गोबर की सही खाद, के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों की भी उपयुक्त मात्रा देनी चाहिए। प्रथम वर्ष में 300 ग्राम यूरिया, 200 ग्राम रॉक फास्फेट, 70 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा की दर से दें दूसरे वर्ष इसकी मात्रा दुगुनी कर दें और तीन वर्ष के बाद पौधोको 1 कि.ग्रा. यूरिया, 600 ग्रा. रॉक फास्फेट एवं 200 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष मई-जून और सितम्बर-अक्टूबर के महीनों में आधा-आधा बांटकर देते रहे।


कटाई-छंटाई

काजू के पेड़ को अच्छी तरह से लगाने या स्थापित करने के लिए लिए ट्रेनिंग के साथ-साथ पेड़ की कटाई-छंटाई की जरूरत होती है। पेड़ के तने को एक मीटर तक विकसित करने के लिए नीचे वाली शाखाओं या टहनियों को हटा दें। जरूरत के हिसाब से सूखी और मृत टहनियों और शाखाओं को हटा देना चाहिए।


फसल तोड़ाई एवं उपज

काजू में पूरे फल की तोड़ाई नहीं की जाती है केवल गिरे हुए नट को इक्ट्ठा किया जाता है और इसे धूप में, सुखाकर तथा जूट के बोरों में भरकर ऊँचे स्थान पर रख दिया जाता है। प्रत्येक पौधे से लगभग 8 किलोग्राम नट प्रतिवर्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार एक हेक्टेयर में लगभग 10-15 क्विंटल काजू ने नट प्राप्त होते है। जिनको प्रसंस्करण के बाद खाने योग्य काजू प्राप्त होता है।