सोयाबीन की खेती मैदानी क्षेत्रों में अभी हाल में ही कुछ वर्षो से शुरू हुई है। इसमे 40 से 50 प्रतिशत प्रोटीन तथा 20 से 22 प्रतिशत तक तेल की मात्रा पाई जाती है। इसके प्रयोग से शरीर को प्रचुर मात्रा में प्रोटीन मिलती है।
सोयाबीन की उन्नतशील प्रजातियाँ
इसमे बहुत सी प्रजातियाँ पाई जाती है जैसे की- पी. के. 772, 262, 416, पी. एस. 564, 1024, 1042, जे.एस. 71-5, 93-5, 72-44, 75-46, जे.एस.2, 235, पूसा16, 20 ऍम ए यू एस46 एवं 37 प्रजाति है।
बोने का समय एवं तरीका
जून के अंतिम सप्ताह में जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्त नमी होना चाहिये। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात् बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) तथा 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये। 20 कतारों के बाद एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण के लिये खाली छोड़ देना चाहिये। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहरा बोयें।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
सोयाबीन की खेती अधिक हल्की, हल्की व रेतीली भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परंतु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिये अधिक उपयुक्त होती है। जिन खेतों में पानी रुकता हो, उनमें सोयाबीन न लें।
ग्रीष्मकालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवष्य करनी चाहिये। वर्षा प्रारम्भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत का तैयार कर लेना चाहिये। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थायें नष्ट होंगीं। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिये उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: अधिक उत्पादन के लिये खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है। जहां तक सम्भव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सकें। यथा सम्भव मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) बनाकर सोयाबीन बोयें।
बीज रोपन
सोयाबीन की खेती करने वक्त बिज को कतारों में बोना चाहिए। छोटे दानो के बीज को बोने वक्त कतारों से कतार की दूरी 30cm और बड़े दाने वाले बीज की दूरी 45 cm होनी चाहिए। 20 कतारों तक बुआई हो जाने के बाद जल निकासी के लिए कुछ जगह को छोड़ देना चाहिए। बीज को लगभग 3 cm गहरा बोना चाहिए। बीज और खाद दोनों को अलग अलग बोने से अंकुरण क्षमता प्रभावित नहीं होती है।
बीज विभिन्न जातियों के बीज आकार के हिसाब से उपयोग करना चाहिये। छोटे दाने वाले सोयाबीन की किस्मों (जे. एस. 97-52) की बीजदर 60-70 कि.ग्रा., मध्यम दाने वाली किस्मों ( जे.एस. 335, जे. एस. 93-05) की बीजदर 70-75 कि.ग्रा. तथा बढ़े दाने वाली किस्मों ( जे. एस. 95-60) की बीज दर 90-100 कि.ग्रा. रखना चाहिये। बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बोक्सिन-थायरम (बीटावैक्स पावर) की 2 ग्राम मात्रा द्वारा अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी की 5-8 ग्राम मात्रा के प्रति कि.ग्रा. का उपचार करना आवश्यक है ताकि बीज एवं मृदा जनित बीमारियों से बीज की रक्षा जा सकें।
फफूंदनाशक दवा से उपचार के पश्चात् 5 ग्राम राइजोबियम व 5 ग्राम पी.एम.बी. से बीज को निवेशित करना चाहिये। राइजोबियम जीवाणु, पौधों में जड़ ग्रंथियों की संख्या बढ़ाने में सहायक होते हैं जिससे भूमि में लगभग 20 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हे. वायुमंडल से स्थिर की जाती है तथा पी.एस.बी. कल्चर जमीन में स्थिर स्फुर को घुलनशील अवस्था में लाकर पौधों को उपलब्ध करवाता है।
बुवाई अच्छे अंकुरण के लिये बोने के समय खेत में 10 सेमी. गहराई तक उपयुक्त नमी होनी चाहिये। बोआई हेतु किस्म के अनुसार कतार से कतार की दूरी 30-45 से.मी. व पौधे से पौधे की दूरी 6-8 से.मी. रखें। बीज को 3.5 से.मी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिये सोयाबीन की 9 लाइनों के बाद एक लाइन की जगह निरीक्षण पट्टी के रूप में छोड़ें। कुल मिलाकर एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में कुल 4-4.5 लाख पौधों की संख्या जरूर होनी चाहिए।
मेढऩाली पद्धति से सोयाबीन की खेती
मेढ़़वाली पद्धति से सोयाबीन की बुवाई करने से वर्षा की अनिश्चितता से होने वाली हानि की संभावना को कम किया जा सकता है। मेढऩाली पद्धति में बीजाई मेढ़ो पर की जाती है तथा दो मेढ़ों के मध्य लगभग 15 से.मी. गहरी नाली बनाई जाती है तथा मिट्टी को फसल की कतारों की तरफ कर दिया जाता है। बीज की बीजाई मेढ़ पर होने से अति वर्षा या तेज हवा के समय पौधों के गिरने की संभावना कम हो जाती है तथा अतिरिक्त पानी का निकास हो जाता है। यदि फसल अवधि में अवर्षा या लम्बे अंतराल से वर्षा न होने की स्थिति में नमी की कमी नही हो पाती, क्योंकि खेत की नालियो में नमी की उपलब्धता ज्यादा लम्बे समय तक बनी रहती है। साधारण सीडड्रिल में एक छोटी सी लोहे की पट्टी लगाकर बुबाई का कार्य किया जा सकता है अथवा साधारण सीडड्रिल द्वारा समतल बुवाई करने के पश्चात कतारों के बीच देशी हल चलाकर नाली का निर्माण किया जा सकता है। बुवाई पश्चात् एवं अंकुरण के बाद नाली को अंत मे मिट्टी द्वारा बॉंध दिया जाता है जिससे वर्षा के पानी का भूमि में अधिक से अधिक संरक्षण हो। वर्तमान सीडड्रिल के आगे मेढ़वाली (रीज एवं फरो पद्धति) यंत्र का उपयोग करके सीधे बुआई की जा सकती है।
सोयाबीन फसल में कुदरती खाद
सोयाबीन फसल की उचित वृद्धि एवं विकास के लिए कुदरती संजीवक खाद एवं बायोगैस स्लरी बहुत जरुरी है । इसके प्रयोग से पौधों की वृद्धि अच्छी होने के अतिरिक्त पैदावार भी अधिक होती है।
प्रथम बार फसल में 1500 लीटर पतंजलि संजीवक खाद अथवा बायोगैस स्लरी प्रति एकड़ प्रथम सिंचाई के समय अवश्य देनी चाहिए।
दूसरी बार 1000 लीटर ‘पतंजलि संजीवक खाद’ अथवा ‘बायोगैस स्लरी खाद’ प्रति एकड़ की दर से उस समय फसल के देना चाहिए, जब सोयाबीन पौधों पर फ्लोवारिंग प्रारम्भ हो जाये।
सिंचाई
सोयाबीन में पुष्पन अवस्था व फली अवस्था पर नमी की कमी होने पर सिंचाई करें।
खरपतवार नियंत्रण
पौधों के जमने के पश्चात सोयाबीन के पौधों को अधिक पानी से नुक्सान नहीं होता, क्योंकि इनके पौधों की जड़ों में एरेनकाइका ऊतक बन जाते हैं, जो जड़ों को हवा प्रदान करते हैं । फलस्वरूप उनकी श्वसन व अन्य क्रियाएं आवश्यकतानुसार होती रहती हैं, लेकिन फूल आने से 2 सप्ताह पूर्व सिंचाई अवश्य करनी चाहिए, जिससे पौधों पर फलियाँ अधिक से अधिक लगा सकें।
वैसे सोयाबीन की फसलों को खरपतवारों से विशेष हानि होने की सम्भावना रहती है, क्योंकि वर्षा की अनियमिता के कारण समय पर निराई-गुडाई नहीं हो पाती है और खरपतवार पनपते रहते हैं।
खरपतवार फसल के साथ प्रकाश, नमी, खाद्य पदार्थो के संदर्भ में स्पर्धा करते हैं । अत: सोयाबीन फसल की बीजाई के 20-25 दिन बाद पहली निराई-गुडाई करने से खरपतवारों की संभावित रोकथाम हो जाती है।
प्रथम निदाई बुवाई के 20-25 दिन बाद व दूसरी निंदाई 40-45 दिन की अवस्था पर करें। अथवा बोनी के बाद तथा अंकुरण के पूर्व एलाक्लोर 50 ई.सी. 4 लीटर या पेंडीमिथालीन 30 ई.सी. 3 लीटर को 600-700 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर के मान से भूमि में छिड़काव करें। तत्पश्चात् 25-30 दिन की अवस्था पर निदाई करें।
फसल की कटाई वाद में प्रबंधन
जब सोयाबीन की फसल परिपक्व हो जाती है, पौधों से पत्तियां झडंने लगती हैं। किस्मों के अनुरूप परिपक्वता अवधि 90 से 140 दिनों की होती है। जब पौधा परिपक्व हो जाता है, पत्तियां पीली पड़ जाती है एवं झड़ जाती हैं। फिर फलियां सूखने लगती हैं। बीज से नमी की मात्रा तेजी से खत्म होती है। फसल की कटाई हाथ से की जा सकती है। हंसिया की सहायता से डंलों को काटा जा सकता है। थ्रेसिंग मशीन की सहायता से या परम्परागत विधि से की जा सकती है। थ्रेसिंग सावधानीपूर्वक करनी चाहिए। अगर डंठल पर जोर से प्रहार किया जाता है तो फली का ऊपरी परत चटक सकती है तथा इससे बीज की गुणवत्ता प्रभावित होती है, उसकी जीवन अवधि कम होती है। कुछ बदलाव के साथ गेहूं के लिए उपलब्ध थ्रेसर का उपयोग सोयाबीन थ्रेसिंग के लिए किया जा सकता है। इसके लिए थ्रेसिंग करने में बदलाव की जरूरत पड़ती है। पंखे की शक्ति बढ़ानी पड़ती है तथा सिलेंडर की गति को कम करना पड़ता है। थ्रेसर से थ्रेसिंग के दौरान 13 से 14 प्रतिशत नमी का होना आदर्श माना जाता है।
भंडारण
भंडारण से पहले बीजों को अच्छी तरह सूखाना चाहिए ताकि नमी का स्तर 11 से 12 प्रतिशत ही रह जाये।
फसल कटाई एवं गहाई
सोयाबीन फसल में जब पत्तियों का रंग पीला पड़ जाये और पत्तियां सूखकर गिरनी प्रारम्भ हो जाये, इस अवस्था पर फसल कटाई कर लेनी चाहिए । फसल कटाई के बाद सूखने के लिए फसल को छोड़ दें और 4-5 दिन पश्चात बैलों की सहायता से दाना अलग कर लें । उपरोक्त विधि से सोयाबीन की खेती करने पर 16 क्विंटल सोयाबीन दाना तथा 25 क्विंटल सूखा भूसा हमारे कृषक भाई साधारण ढंग से प्राप्त कर सकते हैं। अत: आप भी पतंजलि विधि अपनायें और सोयाबीन का भरपूर उत्पाद पायें।
Chandan Ki kheti
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