रु.1 फीस लेकर 545 छात्रों को बनाया इंजीनियर


पिछले 15 सालों से आर.के. सर उन बच्चों को जीवन में आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं, जिनके पास हुनर और मेहनत करने का जज़्बा तो है, लेकिन पढ़ने के लिए पैसे या कोई राह दिखाने वाला मेंटर नहीं है। वे सिर्फ रु.1 फीस लेते हैं और अभी तक 545 छात्रों को इंजीनियर बना चुके हैं।
अपने गांव में आर.के. सर अपनी स्पेशल क्लासेस चलाते हैं, जो आज दुनियाभर में ‘एक रुपये दक्षिणा वाली क्लास’ के नाम से जानी जाती है।

आर.के. सर मैथ्स के टीचर हैं और बच्चों को देश के प्रसिद्ध इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजेज़ में एडमिशन लेने में मदद करते हैं। उनकी क्लास में आकर पढ़ने के लिए हर स्टूडेंट को मात्र एक रुपया दक्षिणा के रूप में देना होता है।
वैसे तो इस काम की शुरुआत उन्होंने सिर्फ़ गरीब बच्चों के लिए की थी, लेकिन समय के साथ आज अमीर-गरीब का फ़र्क भूलकर, वह हर तरह के बच्चों को पढ़ाते हैं और सभी से मात्र एक रुपये ही गुरु दक्षिणा के रूप में लेते हैं। बात करते हुए बड़े मजाकियां अंदाज़ में आर.के. सर ने बताया, “अब मैं एक रुपया तब भी लेता हूँ जब किसी बच्चे का एडमिशन किसी बड़ी कॉलेज में हो जाता है।”
शुरू से बनना चाहते थे शिक्षक:
जीवन में इस तरह के काम से जुड़ने के पीछे की उनकी कहानी भी बेहद ख़ास है। हमेशा से शिक्षक बनना चाहते थे आर.के. सर रोहतास जिला के बिक्रमगंज के रहनेवाले आर.के. सर का पूरा नाम रजनीकांत श्रीवास्तव है। छोटी उम्र में अपने पिता को खो देने के बाद भी उनका बचपन सामान्य तरीक़े से ही बीता; पुश्तैनी खेती से उनका घर चलता रहा। आगे चलकर उनके बड़े भाई ने घर के ख़र्च निकालने के लिए एक ऑटो भी ख़रीद लिया था।
आर.के. सर बताते हैं, “बचपन से गरीबी देखकर मैं समझ गया था कि पढ़ाई ही वह कुंजी है जिसके ज़रिए कोई गरीब बच्चा अपने भविष्य को बेहतर बना सकता है।”
इसलिए वह काफ़ी मेहनत और लगन से पढ़ते थे। उन्हें बचपन से गणित और विज्ञान जैसे विषयों में रूचि थी। दसवीं पास होने के बाद उन्होंने भी किसी दूसरे युवा की तरह एक इंजीनियर बनने का सपना देखा था; लेकिन जीवन में कभी-कभी कुछ अच्छा होने के पहले, इंसान को किसी बड़ी परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। ऐसा ही कुछ आर.के. सर के साथ भी हुआ।
2004 में बारहवीं की पढ़ाई के साथ-साथ वह IIT की प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी कर रहे थे, लेकिन एग्ज़ाम से कुछ दिनों पहले उनको टीबी की बीमारी हो गई और उन्हें नौ महीनों तक घर पर ही आराम करना पड़ा।
आर.के. सर बताते हैं, “उस दौरान रेस्ट करते-करते मैंने आस-पास के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, और यही वह समय था जब मैंने फैसला किया कि मुझे आगे चलकर टीचर ही बनना है।”
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